इन्सानियत की रौशनी गुम हो गई है कहाँ,
साए तो हैं आदमी के मगर आदमी कहाँ?
Insaniyat Shayari
मेरी जबान के मौसम बदलते रहते हैं,
मैं तो इंसान हूँ मेरा ऐतबार कम करना।
अदब के सारे खज़ाने गुजर गए,
क्या खूब थे वो पुराने लोग गुजर गए,
बाकी है बस जमीं पे आदमी की भीड़,
इंसान को मरे हुए तो ज़माने गुजर गए।
सच्चाई थी पहले के लोगों की जुबानों में,
सोने के थे दरवाजे मिट्टी के मकानों में।
दो-चार नहीं मुझको बस एक दिखा दो,
वो इंसान जो बाहर से भी अन्दर की तरह हो।
Insaniyat Shayari | Hum Insaan Hain
जिस्म की सारी रगें तो
स्याह खून से भर गयी हैं,
फक्र से कहते हैं फिर भी
हम कि हम इंसान हैं।
Shayari Insaan Ki Khwahishein
इंसान की ख़्वाहिशों का कोई अंत नहीं,
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद।
चंद सिक्कों में बिकता है इंसान का ज़मीर,
कौन कहता है मुल्क में महंगाई बहुत है।
इन्सानियत शायरी
यहाँ लिबास की कीमत है इंसान की नहीं,
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे।
जिन्हें महसूस इंसानों के रंजो-गम नहीं होते,
वो इंसान हरगिज पत्थरों से कम नहीं होते।
खुदा न बदल सका आदमी को आज भी यारों,
और आदमी ने सैकड़ो खुदा बदल डाले।